Saturday, 29 November 2014

कथा भाव (04)

कहाँ हो तुम इतने दिनों से! मैं कब से सोच रहा हूँ तुम्हे,ं और सोचते-सोचते कई बार दूर जाकर वापस लौटा हूँ।
ज़रूरी नहीं है इतने दिन बात न करना किसी से।
और हाँ, तुम तो मेरी ही तलाश में गयीं थी ना- अब आओ बैठो- तीन महीने से मैं भी चुप बैठा हूँ जग में आकर।
आ आ - ई ई - ऊ उ- कुछ बोलता रहता हूँ
पर अभी शब्दों को आकर नहीं देता हूँ। सब चाव से बुलाते हैं। और तुम सुनाओ अब मुझे अपने साथ रखोगी या नहीं.. अरे मज़ाक कर रहा हूँ। मैं भाव हूँ और मुझे तो कथा के साथ ही रहना है।

Monday, 30 June 2014

4) ये बरकत वाला साथ था-आभाव वाला नहीं

सूरज की सुनहरी कोपलें आती हैं जैसे चेहरे पर- जैसे आती है बरसात की खुशबु वैसा-सा प्यार हुआ कथा को भाव से।

ये बरकत वाला साथ था-आभाव वाला नहीं। ना तो इसमें सवाल थे ना ही कोई शिकवा था।

ना तो कोई सवाल था-ना मलाल था कोई।

कोई आधुनिक डर भी ना था दोनों को। ज़ात तो थी नहीं... बिरादरी के सम्मान वाला पंगा ही न था।हाँ एक दिक्कत थी बस दोनों क साथ। कुछ भी कहना होता तो दोनों एक दूसरे को भरपूर बोलने-बांटने देते।

सुनने वाले असमंजस सी स्थिति में रहते थे।

Sunday, 22 June 2014

3) कथा बहुत कुछ बताती है...

कथा ने आसमान भेदती आतिशबाजियां भी देखीं और ठन्डे पड़े चूल्हे भी आये सामने। कभी सुखा तो कभी भूखा हर तरह का जीवन आया और रहा। जो कथा अपने में उकेर गयी वो हमेशा अपनाया गया। विदेशी देशी वाली लड़ाई नहीं थी वो जिसको कथा याद करके सिहर उठती है। बल्कि अपने अस्तित्व का संघर्ष था उसके लिए। देश परतंत्र और फिर भी उसे तो जीवन बनाना था। खेलती गयी शीलधारी हाथों में।
कथा कैसे अवतरित हुई या इसके पूर्वज और जाति क्या है? किस वर्ण -कुल की है? धर्म कौन सा है? क्या पढ़ें हैं कथा ने वेद और भला कुछ वास्ता रखा है क्या उसने बाणी से-कुरआन से?
ये प्रश्न-सवाल-वहम सब अप्रासंगिक हो जाते हैं जब कथा हमें अपना रोना बताती है। रोई थी जब वो काले आंसू अपने आँगन का बंटवारा देख।
उसका एक अपना सा गावं टोबा टेक सिंह तो पागल ही हो गया था।
आज भी कोई अगर कथा से पूछ बैठता है कि हुआ क्या था-कैसे हुआ था तो कथा के पास ढेरों-ढेर है कहने को। पर कथा ना बताई पायी है वजह की घर ने घर क्यूँ छोड़ा। क्यूँ लूटा अपने आप को और क्यूँ जान ली अपनों की। फिरकापरस्ती पे तो कोई झगड़ा था ही नहीं बस सारी लड़ाई छिना-झपटी की थी। किसी बड़े ने कान पकड़ के दो चपत जड़ी होती तो कुछ सिरफिरे समझ भी जाते शायद। मज़हब तो दरख़्त की तरह थे-बस छावं देना जानते थे।
किसने कब उनके रंग-ज़ात निर्धारित कर दिए पता ही नहीं। हाँ, कथा को ये बखूबी पता है कि निभा तो फिर भी सकते थे दोनों दरख़्त। पर आज भी टहनियां उलझती हैं हर रोज़ और पत्तों का खून झड़ता है। कथा बहुत कुछ बताती है

तहज़ीब के दिनों का सब- उसे जलजले भी याद रहते हैं;बस दोहराती नहीं है।

पता है उसे-दोहरायेगी तो एक ही तरह की होकर रह जायेगी। कथा को तो सतरंगी बने रहना है। बहुमुखी कहते हैं न जिसे वही कथा का मिजाज़ है। कथा तो इतनी विविध है कि कोई सीधे से बात कहे, सारा व्याकरण माने तो भी खुश और कोई कविता पिरो दे घुमा फिरा के तो भी मलाल नहीं। ज़बान वाला तो दरवाज़ा ही नहीं लगाया कथा ने। बस आज़ादी बांटी- और जीया भी मन-मस्ती को।

Tuesday, 17 June 2014

कथा अब यौवन पार है...


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कथा अब यौवन पार है। बहुत लम्बे समय से युवा ही है और बुढ़ापा आएगा नहीं ये उसे पता है।

कथा बातें तो करती है मृत्यु की,पलायन की,हार की,विनाश की,अविश्वास की, सच और जीत की, साथ की और हिम्मत की; मगर उसने ख़ुद की समाप्ति नहीं सोची। जब तक भाव, शैली, मन हैं तब तक कथा का अस्तित्व है और आलोचना की रोज़ी -रोटी भी तो कथा के होने से ही है। कथा अमर है पर चिंतिंत है-विस्मित है।
उसे व्यापार से भय है और भाषा से हताशा।

उसके जीवन को प्रयोगशाला के रूप में परिभाषित करके उसका मूल संशोधित कर दिया गया है।

ये यो वैसा ही है कि उअने दाल रोटी पेट भर खायी भी न थी और उसके सामने प्रायोजित जंक फ़ूड परोस दिया गया। भाषा जो खाने में नमक की भांति अनिवार्य थी, वो भी हताहत। कथा के लिए तो ये हलाहल-सा था।

कथा आज एक उत्सव है-एक उद्योग है-एक काम है। कभी सेवा हुआ करती कथा- लोगों से बात करती जिनमें रहती थी और सच बताती। अनुभव जो करती वही कहती। शैली भाव का अनुसरण करती और मन की बात भी सुनी जाती। आलोचना का आना भी उत्सव था और अतिथि की तरह सेवा की जाती थी। पर अब सब नया सा है।
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कथा समारोहबद्ध बना दी गयी है।
हालांकि बहुत सारे समसामयिक मित्र मिले हैं जो सुरक्षा दे रहे हैं पर चुनोतियाँ उनको भी यदा-कदा खा जाती हैं।
मित्रों की बात कथा करे तो स्याही काग़ज़ सब जी-हज़ुरी करने लगें। बड़ा अच्छा लगता है कथा को अपना इतिहास सुनना और बांटना ख़ुद को। मुंशी से ...

तक सब उसके अपने रहे और कभी आंच आने दी…………


आगे है........

Thursday, 12 June 2014

कथा की कहानी... पहली बूँद कागज़ पे....

कथा और भावना की जान-पहचान पुरानी थी। बहुत पुरानी। पर कभी कभी जब कभी कथा बचपने में नकार देती भावना को,

तो कथा भी फीकी ही रहती।

उनका रिश्ता सूफ़ी सा था। दोनों एक दुसरे के पूरक
-एक दुसरे के मुर्शिद
कथा और भावना के घर बेशक अलग-अलग रहे पर ....दोनों जब भी साथ खेलतीं- बस बोलती रहती कथा
और उसकी सहेली उसे निहारती रहती।
बचपन तो दोनों का ही अटपटा था। कभी किसी की जागीर और कभी किसी का आधिपत्य। पर दोनों का साथ मनमोहक लगता था।
भावना के परिवार में मन था और कथा के परिवार में शैली।
कुछ आना जाना तो आलोचना का भी था पर भावना को वह फूटी आँख भी नहीं भाती थी। कारण उसने कभी कथा को भी नहीं बताया और ना ही शैली और मन की इस बारे में कोई बात हुई।
पूरे कुनबे ने अलग-अलग युग देखे-ज़माने ख़ूब पुराने देखे और आज तक अपना साथ बनाये हुए हैं।
हाँ आलोचना और शैली में दोस्ती हो गयी है। भावना अब परिपक्व हो चुकी है और मन की कम ही सुनती है।
कथा को अकेलापन सा लगता है
कभी-कभार....


-------------------------अभी बाकी है कहानी... पढ़िएगा.....