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कथा अब यौवन पार है। बहुत लम्बे समय से युवा ही है और बुढ़ापा आएगा नहीं ये उसे पता है।
कथा बातें तो करती है मृत्यु की,पलायन की,हार की,विनाश की,अविश्वास की, सच और जीत की, साथ की और हिम्मत की; मगर उसने ख़ुद की समाप्ति नहीं सोची। जब तक भाव, शैली, मन हैं तब तक कथा का अस्तित्व है और आलोचना की रोज़ी -रोटी भी तो कथा के होने से ही है। कथा अमर है पर चिंतिंत है-विस्मित है।
उसे व्यापार से भय है और भाषा से हताशा।
उसके जीवन को प्रयोगशाला के रूप में परिभाषित करके उसका मूल संशोधित कर दिया गया है।
ये यो वैसा ही है कि उअने दाल रोटी पेट भर खायी भी न थी और उसके सामने प्रायोजित जंक फ़ूड परोस दिया गया। भाषा जो खाने में नमक की भांति अनिवार्य थी, वो भी हताहत। कथा के लिए तो ये हलाहल-सा था।
कथा आज एक उत्सव है-एक उद्योग है-एक काम है। कभी सेवा हुआ करती कथा- लोगों से बात करती जिनमें रहती थी और सच बताती। अनुभव जो करती वही कहती। शैली भाव का अनुसरण करती और मन की बात भी सुनी जाती। आलोचना का आना भी उत्सव था और अतिथि की तरह सेवा की जाती थी। पर अब सब नया सा है।
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कथा समारोहबद्ध बना दी गयी है।
हालांकि बहुत सारे समसामयिक मित्र मिले हैं जो सुरक्षा दे रहे हैं पर चुनोतियाँ उनको भी यदा-कदा खा जाती हैं।
मित्रों की बात कथा करे तो स्याही काग़ज़ सब जी-हज़ुरी करने लगें। बड़ा अच्छा लगता है कथा को अपना इतिहास सुनना और बांटना ख़ुद को। मुंशी से ...
तक सब उसके अपने रहे और कभी आंच आने दी…………
आगे है........
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