कथा और भावना की जान-पहचान पुरानी थी। बहुत पुरानी। पर कभी कभी जब कभी कथा बचपने में नकार देती भावना को,
तो कथा भी फीकी ही रहती।
उनका रिश्ता सूफ़ी सा था। दोनों एक दुसरे के पूरक
-एक दुसरे के मुर्शिद
कथा और भावना के घर बेशक अलग-अलग रहे पर ....दोनों जब भी साथ खेलतीं- बस बोलती रहती कथा
और उसकी सहेली उसे निहारती रहती।
बचपन तो दोनों का ही अटपटा था। कभी किसी की जागीर और कभी किसी का आधिपत्य। पर दोनों का साथ मनमोहक लगता था।
भावना के परिवार में मन था और कथा के परिवार में शैली।
कुछ आना जाना तो आलोचना का भी था पर भावना को वह फूटी आँख भी नहीं भाती थी। कारण उसने कभी कथा को भी नहीं बताया और ना ही शैली और मन की इस बारे में कोई बात हुई।
पूरे कुनबे ने अलग-अलग युग देखे-ज़माने ख़ूब पुराने देखे और आज तक अपना साथ बनाये हुए हैं।
हाँ आलोचना और शैली में दोस्ती हो गयी है। भावना अब परिपक्व हो चुकी है और मन की कम ही सुनती है।
कथा को अकेलापन सा लगता है
कभी-कभार....
-------------------------अभी बाकी है कहानी... पढ़िएगा.....
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