कथा ने आसमान भेदती आतिशबाजियां भी देखीं और
ठन्डे पड़े चूल्हे भी आये सामने। कभी सुखा तो कभी भूखा हर तरह का जीवन आया और रहा।
जो कथा अपने में उकेर गयी वो हमेशा अपनाया गया। विदेशी देशी वाली लड़ाई नहीं थी वो
जिसको कथा याद करके सिहर उठती है। बल्कि अपने अस्तित्व का संघर्ष था उसके लिए। देश
परतंत्र और फिर भी उसे तो जीवन बनाना था। खेलती गयी शीलधारी हाथों में।
कथा कैसे अवतरित हुई या इसके पूर्वज और जाति
क्या है? किस वर्ण -कुल की है? धर्म कौन सा है? क्या पढ़ें हैं
कथा ने वेद और भला कुछ वास्ता रखा है क्या उसने बाणी से-कुरआन से?
ये प्रश्न-सवाल-वहम सब अप्रासंगिक हो जाते हैं
जब कथा हमें अपना रोना बताती है। रोई थी जब वो काले आंसू अपने आँगन का बंटवारा
देख।
उसका एक अपना सा गावं टोबा टेक सिंह तो पागल ही
हो गया था।
आज भी कोई अगर कथा से पूछ बैठता है कि हुआ क्या
था-कैसे हुआ था तो कथा के पास ढेरों-ढेर है कहने को। पर कथा ना बताई पायी है वजह
की घर ने घर क्यूँ छोड़ा। क्यूँ लूटा अपने आप को और क्यूँ जान ली अपनों की।
फिरकापरस्ती पे तो कोई झगड़ा था ही नहीं बस सारी लड़ाई छिना-झपटी की थी। किसी बड़े ने
कान पकड़ के दो चपत जड़ी होती तो कुछ सिरफिरे समझ भी जाते शायद। मज़हब तो दरख़्त की
तरह थे-बस छावं देना जानते थे।
किसने कब उनके रंग-ज़ात निर्धारित कर दिए पता ही
नहीं। हाँ, कथा को ये बखूबी पता है कि निभा तो फिर भी सकते
थे दोनों दरख़्त। पर आज भी टहनियां उलझती हैं हर रोज़ और पत्तों का खून झड़ता है। कथा
बहुत कुछ बताती है
तहज़ीब के दिनों का सब- उसे जलजले भी याद रहते हैं;बस
दोहराती नहीं है।
पता है उसे-दोहरायेगी तो एक ही तरह की होकर रह
जायेगी। कथा को तो सतरंगी बने रहना है। बहुमुखी कहते हैं न जिसे वही कथा का मिजाज़
है। कथा तो इतनी विविध है कि कोई सीधे से बात कहे, सारा व्याकरण
माने तो भी खुश और कोई कविता पिरो दे घुमा फिरा के तो भी मलाल नहीं। ज़बान वाला तो
दरवाज़ा ही नहीं लगाया कथा ने। बस आज़ादी बांटी- और जीया भी मन-मस्ती को।
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