Saturday, 29 November 2014

कथा भाव (04)

कहाँ हो तुम इतने दिनों से! मैं कब से सोच रहा हूँ तुम्हे,ं और सोचते-सोचते कई बार दूर जाकर वापस लौटा हूँ।
ज़रूरी नहीं है इतने दिन बात न करना किसी से।
और हाँ, तुम तो मेरी ही तलाश में गयीं थी ना- अब आओ बैठो- तीन महीने से मैं भी चुप बैठा हूँ जग में आकर।
आ आ - ई ई - ऊ उ- कुछ बोलता रहता हूँ
पर अभी शब्दों को आकर नहीं देता हूँ। सब चाव से बुलाते हैं। और तुम सुनाओ अब मुझे अपने साथ रखोगी या नहीं.. अरे मज़ाक कर रहा हूँ। मैं भाव हूँ और मुझे तो कथा के साथ ही रहना है।

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