Wednesday, 20 February 2019

पानी, पहाड़ और मैं!

इस संसार में सबसे पुरानी दो ही चीजें मैं समझ पाया हूँ, एक तो हैं पहाड़ और दूसरा है पानी, अर्थात नदी।

आप हिमालय जायें या गंगा को अविरल बहते देखें, दैवीय सा एक सुख मिलता है जैसे असहाय से मन को कोई ढांढस देने वाला मिल जाता है। 

पर्वतों के पानी का विस्तार भूमि पर दैव-आधिपत्य का सूचक सा लगता है, प्रतीक मात्र। वास्तव में तो हम ही हैं मालिक अब धरती के।

इस मालिकाना हक को लेकर झगड़ते भी हम ही हैं।

इंच-क्यूसिक की बात पर तो युद्ध हो जाते हैं। जबकि पानी भी और पहाड़ भी शनैः-शनैः फैल रहें हैं कभी इधर-कभी उधर। इनका खिसकना हमें नगण्य-सा लगता है। हमें ज्ञात है कि हमारे व्यक्तिगत जीवन-काल में तो यह पहाड़ यहीं रहेगा!
यही तो दैवीय है जो नगण्य है, निर्दिष्ट नहीं, दिखता नहीं खुली आँखों से और समझ आता नहीं बंद करके भी। 

आइये अब मैं अपनी, पहाड़ो और नदियों के प्रति आसक्ति की कहानी बताता हूँ। यह सत्य है कि आसक्त होना उचित नहीं। ये कमज़ोर बनाता है- ना इह-जीवन के योग्य छोड़ता है ना पर-जीवन के। परन्तु आदि-अनंत के प्रति प्रीति रखकर तो उद्धार ही सम्भव है। जो था-है और रहेगा वही तो देव है-आध्यात्म है- ॐ है।

जब काल के कपाल पर कल-कल करती कर्मयोगिनी नदियाँ पर्वतों के हिम-शिखरों से चलीं तो उन्हें यह पता था कि जो बहाव के साथ बहे जा रहें हैं वो पत्थर भी पीढियों को जीवन का रहस्य समझायेंगे। चाहे तलहटी में घिसे और लुढ़के पर कहीं तो पहुँचे। जहाँ पहुँचे वहाँ नदी को सुंदरता दी। 

नदी के जल में पवित्रता होती है, केवल इसलिए नहीं कि वह शुद्ध होता है अपने स्रोत के कारण, अपितु वह शुद्ध करता है-स्वयं को भी और जिस पर बहता है उसे भी। 

बहुत मन होता है सब छोड़-छाड़ पल्ला झाड़ जा बैठूँ उस ठौर जहाँ निहार सकूँ उन्हें... बहते, संगम बनाते। 

नदियों को देखना भी पहाड़ों को देखने की भांति ही है। हैं तो दोनों ही ब्रह्मांड के जनक और जीवन के आधार। 

नदी पूछती होगी पर्वतों से कि तुम तो अटल हो और मैं बहती रहती हूँ, फिर भला हम एक जैसे कैसे हैं इस लिखने वाले के लिए?

शिखरधारी के उत्तर में ही है जीवन का वो सार है जिसकी कहानी कही नहीं जा सकती!

वो कहता है:

तुम्हारा बहाव दिखता है-महसूस भी होता है और मुखरित भी। तुम अपने रास्ते स्वयं बनाने में सक्षम भी हो। मैं भी बढ़ता हूँ, टस-मस होता हूँ। बस इसे यांत्रिक-सा तथ्य मान लेते हैं और मेरे चरित्र को नहीं समझ पाते। मेरा खनन भी तो जीवन को खंडित करने का प्रतीक ही है। जो मनुष्य इतना ऊँचा था वो आज कुछ भी नहीं, जो नदियाँ मुझ से चलकर, चिरकाल से जीवन को जीवंत रखे हुईं थी, आज मृतप्रायः हैं। 

पहाड़ों-पर्वतों-अटल-अडिगों की गति मद्धम होती है परंतु उनका निर्णय अंतिम।

साथ-साथ टहलते नदी-पहाड़ उत्तर देते उत्तरोतर चल दिये।


Wednesday, 6 February 2019

बस बातें!

बस बातें करनी हैं!
आप से, उन से
 सबसे!

जिन्हें कभी मिल नहीं सकते या जिनसे कभी वास्ता  भी न पड़ेगा,
बातें तो उनसे भी करनी हैं। और सिर्फ़ बोलना नहीं है मुझे। सुनना भी तो है। हरेक तो आपमें कहानी है। सब तो लेकर चलते हैं भाव और जो समझ जाता है भावों को कथा को उसी से तो हो जाता है प्रेम।
अब कथा को इसी हफ्ते पता चला की ये हफ्ता तो थोड़ा दूकानदारी वाला सा है। प्यार-मुहब्बत को थोड़ा अमीर बनाया जा रहा है। साज रहीं हैं हट्टियाँ सुर्ख़ रंगों से।
किसी का नीला जीवन लाल हो जाये तो भला मुझे क्या एतराज़। मगर अगर भाव नहीं तो स्याह ही होगा...

गुलाब नहीं खिलता खिजाओं में। बहारों में ही आती है हवा उल्फ़त की!

आइये अब बातें करने पर आते हैं, जिनकी जेब गरम और जबीं पर खुशनुमा लकीरें हैं, वो तो मना ही लेंगे इस हफ़्ते अपने मन को। ख़ुद का भी ख़्याल करना कहीं सितारों की टोह लेने के चक्कर में सूरज से भी जाओ। ध्यान रखना इश्क़ निकम्मा कर देता है भले-भलों को!
हम ये न कह पाएंगे कि गयी भेंस पानी में। अब जब तुम रोये नहीं - तो पानी कहाँ बेचारी भेंस के लिए!

मैंने क्यूँ कह दिया बेचारी उसे!?!
एक पशु को थोड़े पता है कि लेबल क्या होता है- प्राइस टैग क्या होता है। फिर उसका जीवन कैसा होता है, नीरस या सरस?
चलिये ये बात भी पता चल ही जाएगी जब हम मिलेंगे-बैठेंगे। अभी तो उनसे बात करने का मन है जिन्हें कभी मिल नहीं सकते  या जिनसे कभी वास्ता  भी न पड़ेगा,
बातें तो उनसे भी करनी हैं। और सिर्फ़ बोलना नहीं  मुझे। सुनना भी तो है।

अरे... आप तो मुस्कुरा रहें हैं.... कुछ बात कहिए हुज़ूर!