कितनी अजीब बात है ना, जब कथा और भाव ने अपनी कहानी जब कहनी शुरू की तब भी वही हम थे और आज भी।
साँझा अंश आया है हमारा और भाव बन कर कथा को अपना बनाया है इसने।
किलकारियाँ अब ठुमक ठुमक चलने लगी हैं और स्वर साध लिए हैं इसने।
अक्षर बनाने लगा है हमारा एकलव्य।
इन आठ महीनों में जीवन को गोद में खिलखिलाते देखा है और अपने काँधे सुलाने लगा हूँ।
अपनी ओर दौड़ते-लुढकते देख रहा हूँ। सबमें से पहचाना जाता हूँ तो अद्भूत आनंद मिलता है।
अब जूठा खाना सात्विक है और इसका मुझे भिगो देना गंगा-स्नान।
पितृत्व कैसा जादू है कि सब सुंदर लगने लगा है जीवन में।
घर लौटने का मन रहता है। माँ की गोदी में होता है तो अपने जीवन की कथा की गोद में भाव को पलते-परिपक्व होते देखता हूँ।
भाड़ में जाए दुनियादारी के वो कानून जो कहते हैं कि भागते रहो पैसे-ओहदे के पीछे।
बेटे के बचपन से भी आगे कुछ है क्या?
अपने बचपन को अपनी गोदी में खेलते देखना।
बहुत सूंदर।
मैं कथा की कहानी कहने चला हूँ। कथा को हम सभी जानते हैं। हम सब में एक कथा है- मुझमें और आप में - हर उस मन में कथा का ठहराव है जिसे आस पास का कुछ महसूस होता है। कथा प्रतीक है- पर आप इसे एपिसोड्स में नहीं बाँध सकते। अभी तो आईडिया ही आया है- जब कुछ कहने लायक होगा तो छप जाएगा फेसबुक पर भी। अभी मन के काग़ज़ों पे ही छींटें पड़ रहे हैं। आओ कहानी कहें।
Sunday, 12 April 2015
एकलव्य युग है कथा भाव में
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